त्रिलोकीनाथ मंदिर-लाहौल में चंद्रभागा नदी के बाएं तट पर हिन्दुओं और बौद्धों के लिए यह मंदिर श्रद्धा का केंद्र रहा है। वास्तुशिल्पीय शैली में मुलत: यह हिन्दू ही था लेकिन कालांतर में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रभाव के बाद इस पर भी उनके धर्म का प्रभाव पड़ा। मंदिर का सफ़ेद शिखर दूर से दीखता है। एक झंडा लहराता दिखाई देता है जिसके मध्य ओउम लिखा है। मुलत: श्री त्रिलोकीनाथ भगवान का मंदिर कालांतर में बौद्ध तथा हिन्दुओं के लिए बराबर महत्व का हो गया।
मंदिर को चार धामों में से एक तीर्थ की ख्याति प्राप्त है। दूर-दूर से लोग तीर्थ यात्रा पर यहाँ आते हैं। इनमें तिब्बत और नेपाल के श्रद्धालु भी होते हैं। मंदिर कई चरणों में बना है। ऊपरी भाग ईंटो से और निचला भाग पत्थरों से बना है। यह शिखरकार है। मंदिर में भगवान त्रिलोकीनाथ की छ: भुजाओं वाली संगमरमर की प्रतिमा है। यह आदमकद है। हिन्दुओं के लिए यह श्री त्रिलोकीनाथ और बौद्धों के लिए अवलोकितेष्वर के आगे दीपक प्रज्वलित रहते हैं। प्रतिमा सूंदर है जिसके ऊपर ही गंगा की एक प्रतिमा है। दाईं तरफ एक मंडप है इस पर एक बड़ा छतर है जिसे लोहे की जंजीर दे बांध रखा है। सामने गणेश जी की प्रतिमा है।
गर्भ गृह के बाहर परिक्रमा पथ है। उसकी दीवार पर 108 धर्मचक्र (मने लक्खोर) लगे हैं। श्रद्धालु उन्हें परिक्रमा करते हुए घूमाते हैं। यह माने बौद्ध गोम्पाओं में ही आते हैं। मंदिर के दूसरी ओर प्रांगण में एक कमरे में लगभग डेढ़ मीटर ऊँचा बौद्ध पूजा चक्र जिसे "मन दुन्गयूर"कहा जाता है, स्थापित है। बौद्ध श्रद्धालु उसे एक लम्बी रस्सी से घुमाते रहते हैं और मंत्रोच्चारण करते हैं। भगवान शिव ने यहां अपने तीन विराट रूप दिखाए थे। एक बार भगवान शिव के न मिलने पर माता पार्वती चिंतित हो गई। नारद ने उनकी सहायता की और उन्हें यहां ले आए। यहां देखा तो भगवान शिव घोर तपस्या कर रहे थे। अपने तीनों रूपों के कारण ही वह त्रिलोकीनाथ के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ माँ पर्वती को उन्होंने अपने तीनों रूपों दिखाए।
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