माँ भृकुला देवी -चंद्र भागा के दाएं छोर पर उदयपुर बसा है। यह समुद्रतल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गांव के साथ मयार नाला बहता है जो चंद्रभागा में मिलता है। यह स्थान माता मृकुला देवी के कारण प्रसिद्ध है। दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। कला प्रेमियों के लिए भी यह मंदिर कम महत्व नहीं रखता। भीतरी कक्ष की दीवारों और छतों में लकड़ी पर अद्भूत और उत्कृष्ट नक्काशी है। बहार देखने पर मंदिर साधारण और कुटीर सा लगता है। भीतर इतना बड़ा कला संसार दीवारों पर चित्रित है जिसका अनुमान सहज नहीं हो पाता। गर्भगृह में माता की प्रतिमा बाहर से ही नजर आ जाती है। प्रतिमा कक्ष का दरवाजा छोटा है। माता के चरणों तक पहुंचने के लिए झुककर प्रवेश करना होता है। दो-तीन लोग ही एक समय में फूल चढ़ा सकते हैं। गर्भगृह के चरों ओर परिक्रमा पथ है।
गर्भगृह के मध्य में त्रिमुखी सिंह पर विराजमान महिषासुरमर्दिनि की अष्टभुजी मूर्ति है। इसका निर्माण 1569-70 ई. का है। इसे "पंचमानक जिनका" कलाकार द्वारा बनाया गया है। इसकी स्थापना भदरवाह के ठाकुर हिमपाल ने की। सिंह पर बैठी माता काली को महिषासुर पर प्रहार करते हुए दर्शाया गया है सिंह पीछे प्रहार करता हुआ दिखाई देता है। देवी का मुकुट तिब्बती शैली में निर्मित है। प्रतिमा के दाईं तरफ मूर्ति की स्थापना करने वाले ठाकुर को दिखाया गया है।
मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है। निर्मित मण्डप की छत छ: खम्बों पर आधारित है। भीतर दीवारों और छतों पर उत्कृष्ट काष्ठ-कला की गई है। हिन्दू देवी-देवताओं के साथ साथ भगवान बुद्ध से संबंधित चित्र भी दर्शाए गए हैं। इस मंदिर श्रद्धा का केंद्र है। काष्ठ कला के द्वार रामयण, महाभारत, भगवान बुद्ध, दशावतार, समस्त ग्रह, किन्नरों और यक्षों से सम्बन्धित विभिन दृश्य चित्रित हैं। मंदिर पश्चिमी हिमालय की उच्तम कला-श्रेणियों में से एक है। मंदिर की काष्ठ कला विभिन शताब्दियों में की गई हैं।
मंदिर की वास्तुकला परम्परा भरमौर के लक्ष्णादेवी और शक्ति देवी छतराड़ी से मिलती है। उस समय काष्ठ-कला की परम्परा थी। प्रारम्भ में यह मंदिर किसी और देवता से सम्बन्ध था। बौद्ध लोग इस मंदिर को वज्रावराही के नाम से मानते हैं। तिब्बती में देवी को "दोरजेपागमा" कहते हैं। उनका कहना है कि मंदिर प्रारम्भ में बौद्ध गोम्पा था। समय के साथ-साथ परिवर्तन हुए और आज यह स्थान शक्ति देवी का केंद्र बन गया है। दोनों धर्मो इसे बराबर मानते हैं ग्यारहवीं शताब्दी तक मंदिर जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था। 11 वीं शातब्दी में कश्मीर के राजा की महारानी अनन्त देवी ने इसे पुन: निर्मित करवाया। इसके बाद लाहौल राजा मंदिर की ओर आकृष्ट हुआ। इसका नाम लहाचोन उत्पाल था। राजा ने एक मंदिर को मरीचि वज्रावराही को समर्पित कर दिया। उसने एक कक्ष में बौद्ध धर्म सम्बन्धी कई वृतांत भगवान बुद्ध की लीलाओं को समायोजित करके बनवाए।
मंदिर की दीवारें पहाड़ी शैली में बनी हैं। बाहरी भाग में साधारण पत्थर और गरे का प्रयोग है। छत त्रिउंकि और ढलवां है। शिखर नुकीला और शिखरकार है। भीतर सभा-मंडप के बाहर लकड़ी के दो द्वारपालों की मूर्तियां हैं। जब मंदिर में बलि दी जाती है तो खून के कुछ छींटे इन्हे भी दिए जाते हैं।
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